Sunday, July 14, 2019

बुन्देली फिल्म : किसान का कर्ज (जित्तू खरे बादल बुन्देलखण्ड)


किसानों की सच्ची तस्वीर को दर्शाती है,बुन्देली फिल्म : किसान का कर्ज - कुशराज _14/7/19

https://m.youtube.com/watch?v=9gvYKJ1GPN0

Saturday, July 13, 2019

भारतीय किसान और उनकी मूलभूत समस्याएं



देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है। ऐसे में किसानों की खुशहाली की बात सभी करते हैं और उनके लिए योजनाएं भी बनाते हैं किंतु उनकी मूलभूत समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है। लेखक ने किसानों की समस्याओं को उठाते हुए उनके शीघ्र निराकरण की जरूरत पर जोर दिया है।स्वतंत्र भारत से पूर्व और स्वतंत्र भारत के पश्चात एक लम्बी अवधि व्यतीत होने के बाद भी भारतीय किसानों की दशा में सिर्फ 19-20 का ही अंतर दिखाई देता है। जिन अच्छे किसानों की बात की जाती है, उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है। बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण कृषि योग्य क्षेत्रफल में निरंतर गिरावट आई है।

कृषि शिक्षा

जिस देश में 1.25 अरब के लगभग आबादी निवास करती है और देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर आधारित है, उस देश में कृषि शिक्षा के विश्वविद्यालय और कॉलेज नाम-मात्र के हैं, उनमें भी गुणवत्तापरक शिक्षा का अभाव है। भूमंडलीकरण के दौर में कृषि पर आधुनिक तकनीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से जो इस देश में आती हैं उसे कृषि का प्रचार-प्रसार तंत्र उन किसानों तक पहुंचाने में लाचार नजर आता है, यह गंभीर और विचारणीय विषय है। शिक्षा का ही दूसरा पहलू जिसे प्रबंधन शिक्षा की श्रेणी में रखा जा सकता है, नाम-मात्र भी नहीं है। राष्ट्रीय अथवा प्रदेश स्तर पर कृषि शिक्षा के जो विश्वविद्यालय हैं, उनमें शोध संस्थानों के अभाव में उच्चस्तरीय शोध समाप्त प्राय से हैं। चाहे संस्थानों का अभाव हो, वित्तीय एवं तकनीकी सुविधाओं का अभाव हो अथवा गुणवत्तापरक शिक्षकों का अभाव हो, जिसके कारण एक हरित क्रांति के बाद फिर कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। किसान ईश्वरीय कृपा पर ही आज भी निर्भर हैं। कृषि शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में होना चाहिए और प्रत्येक शिक्षण संस्थान में न्यूनतम माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा अवश्य होनी चाहिए। उन लोगों का उपयोग कृषि के निचले स्तर के व्यापक प्रचार-प्रसार और उत्पादन वृद्धि में किया जाना चाहिए।

भूमि प्रबंधन

आजादी के बाद भी किसी प्रकार की भूमि एवं फसल प्रबंधन की बात देश के किसी कोने में दिखाई नहीं देती और तदर्थ आधार पर नीतियों और प्रबंधन का संचालन वे लोग करते हैं, जिन्हें इस क्षेत्र की कोई जानकारी नहीं होती। यदि राष्ट्रीय स्तर पर यह नीति बनाई जाए कि देश के अंदर विभिन्न जिंसों की कितनी खपत है और वह किस क्षेत्र में है, इसके अतिरिक्त भविष्य के लिए कितने भंडारण की आवश्यकता है? साथ ही, कितना हम निर्यात कर सकेंगे। जिंसवार उतने उत्पादन की व्यवस्था क्षेत्रीय आधार पर करनी चाहिए और संबंधित किसानों को इसकी शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त जो भूमि अवशेष रहती है, उस पर ऐसे उत्पादों को बढ़ावा देना चाहिए जो किसानों के लिए व्यावसायिक सिद्ध हो तथा निर्यात की संभावनाओं को पूर्ण कर सकें और आयात को न्यूनतम कर सकें।

यहां यह भी देखना होगा कि जिन फसलों को हम बोना चाहते हैं, उनके लिए आवश्यक जलवायु, पानी, भूमि आदि कैसा होना चाहिए। इसका परीक्षण कर संबंधित किसानों को शिक्षित किया जाए ताकि वह सुझावानुसार कार्य करने के लिए सहमत हो। इस हेतु अच्छी प्रजाति के बीजों की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए और जो खेत या किसान चिन्हित किए जाएं, उन्हें ये बीज उपलब्ध कराए जाने चाहिए। फसल की बुवाई के समय कृषि क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञ अपनी देखरेख में बुवाई कराएं तथा उन पर होने वाली बीमारियों, आवश्यक उर्वरकों, सिंचाई, निकाई, निराई, गुड़ाई आदि का कार्य आवश्यकतानुसार समय-समय पर कृषि विशेषज्ञों के निर्देशन में कराया जाए। इससे उत्पादन बढ़ेगा और किसान भी व्यावहारिक दृष्टि से प्रशिक्षित होंगे।

भूमि अधिग्रहण नीति

केन्द्र/राज्य सरकारों अथवा राज्यान्तर्गत गठित विभिन्न विकास प्राधिकरणों द्वारा भूमि अधिग्रहण की नीति में कृषि योग्य भूमि के मद्देनजर परिवर्तन किया जाना परमावश्यक है। औद्योगिक विकास, आधारभूत संरचना विकास व आवासीय योजनाओं हेतु ऐसी भूमि का अधिकरण किया जाना चाहिए जो कृषि योग्य नहीं है। ऊसर बंजर तथा जिसमें अत्यधिक कम फसल पैदावार होती है, ऐसी भूमि का अधिग्रहण हो। कृषि उपयोग में लाए जाने वाली भूमि का अधिग्रहण और उस पर निर्माण प्रतिबंधित कर देना चाहिए। आवासीय औद्योगिक एवं ढांचागत निर्माणों के लिए कृषि योग्य भूमि का अंधाधुंध अधिग्रहण किए जाने से कृषि योग्य भूमि अत्यधिक संकुचित होती चली जाएगी जो तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के भरण हेतु कृषि उत्पादन के लिए अक्षम होगी। यह भी आवश्यक है कि जिन किसानों की भूमि अधिगृहित की जाती है उसे वस्तुतः लीज पर लिया जाना चाहिए तथा मुआवजे के रूप में एकमुश्त भुगतान के आधार पर वार्षिक रूप से धनराशि लीज अवधि तक प्रदान की जानी चाहिए। साथ ही परियोजनाओं में हो रहे लाभ से भी लाभांवित किए जाने हेतु अधिगृहित भूमि पर विकसित प्रोजेक्ट में एक अंशधारक के रूप में किसानों को रखा जाए जिससे उन्हें प्रोजेक्ट के लाभ में नियमित भागीदारी मिलती रहे।

साख प्रबंधन

न्याय पंचायत अथवा ग्रामसभा स्तर पर एक कृषि केंद्र होना चाहिए जहां ग्रामीण कृषि क्षेत्र से संबंधित सभी कर्मचारी आवासीय सुविधाओं के साथ कार्यालय में कार्य कर सकें। यहां एक सहकारी समिति भी होनी चाहिए अथवा कृषि सहकारी समिति का विक्रय केंद्र होना चाहिए जिस पर कृषि मानकों के अनुसार बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि की व्यवस्था कराई जाए, जो किसानों को ऋण के रूप में उपलब्ध हो। साथ ही, ऐसे यंत्र/उपकरण जिनकी किसानों को थोड़े समय के लिए आवश्यकता पड़ती है, वह उपलब्ध रहने चाहिए और निर्धारित किराए पर उन्हें उपलब्ध कराया जाना चाहिए। जैसे- निकाई, निराई, गुड़ाई, बुवाई अथवा कीटनाशकों के छिड़काव से संबंधित यंत्र अथवा कीमती यंत्र जिन्हें किसान व्यक्तिगत आय से खरीदने में असमर्थ है, आदि संभव हैं तो ट्रैक्टर, थ्रेशर, कंबाइन हार्वेस्टर आदि की सुविधाएं भी किराए पर उपलब्ध होनी चाहिए ताकि लघु एवं सीमांत वर्ग के किसान बिना किसी बाधा के खेती कर सकें। 
खेती में जो भी फसल बोई जाए, उस फसल को सहकारी समिति के माध्यम से बीमाकृत कराया जाए और सरकार की नीतियों में आवश्यकतानुसर परिवर्तन करके यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जिस किसान की फसल को जिस तरह से भी क्षति हुई जैसे अतिवृष्टि, सूखा, ओलावृष्टि, आग, चोरी, बाढ़ या कोई अन्य कारण हो तो उस व्यक्ति को उसका क्लेम तत्काल दिया जाना चाहिए और क्लेम की राशि उसको दिए गए ऋण में समायोजित हो जिससे कि किसान अपनी 6 माह से पालन-पोषण करके तैयार की गई फसल की बर्बादी से गरीबी की ओर जाने से बच सके। वर्तमान व्यवस्था में शायद न्याय पंचायत स्तर पर 50 प्रतिशत से अधिक क्षति होने पर उस न्याय पंचायत के किसान को बीमा का लाभ मिलता है। यह नितांत ही अन्यायपूर्ण है। बीमा कराना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि बीमा कंपनी की यह समीक्षा भी होनी चाहिए कि क्षेत्र के कितने किसानों को इससे लाभ हुआ है अथवा क्लेम मिले हैं। अधिकांश बीमा कंपनी बीमा करने के बाद इसकी खबर नहीं लेती और यदि कोई किसान संपर्क भी करता है तो उसे कानूनी दांव-पेंच में फंसाकर परेशान कर देती हैं जिससे वह इसके लाभ से वंचित रह जाता है। कृषि उपज प्रबंधन के लिए बीमा अति महत्वपूर्ण और उपयोगी है जिससे किसानों को ऋणग्रस्तता से बचाया जा सकता है।

विचारणीय विषय यह है कि किसान की फसल छः माह में तैयार होती है और उस फसल को तैयार करने के लिए आज भी किसान नंगे पांव जाड़ा, गर्मी, बरसात में खुले आकाश के नीचे रात-दिन परिश्रम करके फसल तैयार कर लेता है। खेतों में रात-दिन कार्य करते समय दुर्भाग्यवश यदि कोई जानवर काट लेता है या कोई दुश्मन उसकी हत्या कर देता है तो ऐसी दशा में उसका कोई बीमा आदि नहीं होता। ऐसे में उनके बच्चे सड़क पर आ जाते हैं, दिन-रात एक करके देश की सूरत बदलने वाला किसान और उसका परिवार न केवल भूखा सोने को मजबूर होता है बल्कि सदैव के लिए निराश्रित हो जाता है। अतः फसल बीमा के अतिरिक्त कृषक बीमा भी कराया जाना चाहिए।

किसानों को ऋण दिए जाने की व्यवस्था और सुविधाओं को मजबूत तथा उदार बनाने की आवश्यकता है। समय-समय पर केंद्र और राज्य सरकारों ने किसानों को ऋणमुक्त कराने के लिए ऋण माफी की अनेक योजनाएं घोषित की हैं जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार करके निर्णय लिया गया होता तो किसानों की दुर्दशा शायद कम होती। ऋण माफी से निश्चित रूप से उन किसानों को लाभ हुआ है जो कभी अच्छे ऋण भुगतानकर्ता थे ही नहीं और उनमें यह प्रवृत्ति विकसित हुई कि ऋण की अदायगी करने से कोई लाभ नहीं है। किसी न किसी समय जब सरकार माफ करेगी तो इसका लाभ हमको मिलेगा। साथ ही, ऐसे किसान जो सदैव समय से ऋण अदायगी करते रहे हैं, वे इस ऋण माफी से स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे इससे धोखा खाए हैं। इसलिए उनमें भी यह आस्था विकसित हो रही है कि समय से कर्ज अदा करने से कोई लाभ नहीं है और जब बकायेदार सदस्यों का कुछ नहीं बिगड़ रहा तो हमारा क्या बिगड़ेगा। किसान किसी न किसी रूप में लगभग सभी वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करके आज बकायेदार हैं और बकायेदारों को ऋण न देने की नीति के कारण वह अब इन वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने में असमर्थ हैं परंतु जब उसे अपने किसी अन्य कार्य, सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों के निवर्हन हेतु किसी न किसी रूप में धन की आवश्यकता होती है तब वह बाध्य होकर उसी साहूकार के पास ऋण प्राप्ति के लिए जाता है जिससे मुक्ति दिलाने के लिए स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री से लेकर अब तक सभी प्रयासरत् रहे।
ये साहूकार 2 वर्ष पूर्व 5 रुपये प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से ब्याज पर किसान को ऋण दे देते थे जिसकी कोई गारंटी नहीं होती है, और न ही कोई अभिलेख मांगे जाते हैं बल्कि उसकी चल-अचल संपत्ति और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए ऋण दिया जाता है। विगत माह ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण के समय सामान्य व्यक्ति की हैसियत से वार्ता की गई तो स्थिति यह आई है कि अब साहूकार 8 रुपये से 10 रुपये तक प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से ब्याज ले रहे हैं जिससे किसान आकण्ठ ऋण में डूब रहे हैं। इतनी भारी ब्याज की रकम अदा करने के बाद एक बार लिए गए ऋण का मूल धन अदा करना किसान के बस की बात नहीं होती। अतः वह लोक-लाज को बचाने के लिए आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में वित्तीय संस्थाओं से लिए गए ऋण तो प्रकाश में आते हैं किंतु साहूकार द्वारा दिया गया ऋण कहीं भी उजागर नहीं होता।

यह विडंबना ही है कि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। साथ ही, वातावरण में यह नकारात्मकता विकसित कर दी गयी है कि ऋण अदायगी से कोई लाभ नहीं है तथा सरकारों द्वारा विभिन्न प्रकार से ऋण की अदायगी पर रोक लगने से किसानों को नुकसान हुआ है। इससे राष्ट्रीय स्तर पर साख व्यवस्था चरमरा गयी है। यह भी उल्लेखनीय है कि सुदूर ग्रामीण अंचलों में सहकारी समितियों की जो पकड़ आम आदमी तक है, वहां अन्य वित्तीय संस्थाओं की नहीं है। अनेक प्रयासों के बाद भी यह संस्थाएं वहां लघु एवं सीमांत कृषकों को छोटे ऋण देने से कतराती हैं। स्थानीय स्तर पर सहकारी समितियों के माध्यम से वितरित ऋण एवं अन्य कृषि सामग्री सरकार के निर्देशों के अंतर्गत सस्ती दरों पर बांटी गयी अथवा हानि पर दिए गए ऋणों की वसूली पर भी रोक लगाई गई जिसके कारण सहकारी समितियों की वित्तीय दुर्दशा देखने को मिलती है और इससे धीरे-धीरे पूरा सहकारी ढांचा न केवल चरमरा गया बल्कि समाप्ति की ओर है। ऐसी स्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों की साख व्यवस्था पर ध्यान न देने के कारण वहां की दरिद्रता और बढ़ती गई। यदि सहकारी समितियों को स्वतंत्र रूप से उनके वास्तविक सदस्यों के द्वारा संचालित किया जाए, जो समिति के कष्ट को अपना कष्ट समझें तो निश्चित रूप से वह न केवल कृषि क्षेत्र में चमत्कारी कार्य कर सकेंगे बल्कि प्रजातंत्र की प्रथम सीढ़ी एवं प्रथम पीढ़ी के लोगों की राजनैतिक जागरूकता के लिए एक स्तंभ सिद्ध हो सकते हैं।
किसान क्रेडिट कार्ड की जो व्यवस्था की गई है, वह अच्छी तो है परंतु उसका व्यावहारिक पक्ष देखा नहीं गया है। जैसे कोई सहकारी समिति अपने कार्य क्षेत्र से बाहर ऋण नहीं दे सकती और उस समिति से ही धन एवं कृषि उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है तब उसके किसान क्रेडिट कार्ड का कोई मतलब नहीं है। किसान के पास सहकारी समिति की पासबुक प्रारंभ से ही दी जाती है जिसमें उसका विवरण अंकित होता है। उसकी ऋण सीमा भी स्वीकृत की जाती है। उस ऋण सीमा के अंतर्गत वह नकद या वस्तु के रूप में ऋण प्राप्त कर सकता है। 

साख व्यवस्था में भी किसान की आवश्यकताएं दो तरह की होती हैं- एक अल्पकालीन और दूसरी दीर्घकालीन। अल्पकालीन व्यवस्था के अंतर्गत सरकार का विशेष ध्यान रहता है परंतु दीर्घकालीन ऋणों में किसान की आवश्यकता पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। दीर्घकालीन ऋणों की ब्याज दरें अल्पकालीन ऋण की तुलना में अधिक हैं। परियोजना आधारित ऋण वितरित किया जाता है। किसान की अन्य आवश्यकताओं के लिए ऋणों का कोई प्रावधान दीर्घकालीन व्यवस्था में नहीं है जिससे एक ही किसान को दोहरे मापदण्डों का सामना करना पड़ता है। इस व्यवस्था में बेहद सुधार की आवश्यकता है। परियोजना आधारित ऋण वितरण को समाप्त कर ऋण सीमा स्वीकृत करते हुए सस्ती ब्याज दरों पर ऋण तथा किसान क्रेडिट कार्ड उपलब्ध कराए जाने चाहिए।

क्रय-विक्रय व्यवस्था

विडंबना है कि जब भी कृषि उत्पाद बाजार में आता है तो उसके मूल्य निरंतर गिरने लगते हैं और मध्यस्थ सस्ती दरों पर उसका माल क्रय कर लेते हैं जिससे कृषि घाटे का व्यवसाय बना हुआ है। दुर्भाग्य है कि संबंधित लोग औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादन की दरें लागत, मांग और पूर्ति का ध्यान में रखते हुए निर्धारित करते हैं किंतु किसान की जिंसों का मूल्य या तो सरकार या क्रेता द्वारा निर्धारित किया जाता है उसमें भी तत्काल नष्ट होने वाले उत्पाद की बिक्री के समय किसान असहाय दिखाई देता है। ऐसी दशा में क्रय-विक्रय व्यवस्था को मजबूत और पारदर्शी बनाया जाना चाहिए और उसके उत्पाद का मूल्य भी मांग, पूर्ति और लागत के आधार पर किसान को निर्धारित कर लेने देना चाहिए। सर्वविदित है कि किसानों का कहीं उत्पाद इतना अच्छा और अधिक हो जाता है कि सड़ने लगता है और किसान उसे फेंकने को मजबूर हो जाता है और कभी-कभी उत्पाद इतना कम होता है कि उसे मध्यस्थ सस्ती दरों पर क्रय कर उच्च दरों पर बिक्री कर बीच का मुनाफा ले लेता है और किसान ठगा-सा रह जाता है। 

उत्पाद मूल्य के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए सूचना विभाग भी जिम्मेदार है। आज भी किसान के पास कोई ऐसा तंत्र-मंत्र नहीं है जो यह तय कर सके कि उसके उत्पाद का उचित मूल्य आज किस बाजार में क्या है और भविष्य में मूल्य घटने-बढ़ने की क्या संभावनाएं हैं? जब वह अपने उत्पाद को मंडी में ले जाता है तब उसे उस दिन का भाव पता चलता है। उत्पाद को पुनः घर वापस लाने पर किराया-भाड़े का बोझ, परेशानी आदि को देख मजबूर होकर क्रेता के चुंगल में फंसता है और क्रेताओं का संगठित गिरोह उसके उत्पाद का मनमाने दामों में क्रय कर लेते हैं। इसलिए किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिलने के लिए उन्हीं के मध्य व्यक्तियों के माध्यम से कोई सम-सामयिक रणनीति बनाई जानी चाहिए। मंडी में गोदामों में सहकारी समितियों के माध्यम से यह व्यवस्था की जानी चाहिए कि यदि किसी दिन किसान को उसके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है तो उसके उत्पाद का भंडारण सहकारी क्रय-विक्रय समितियों के गोदामों में कर दिया जाए और उसके उस दिन के ताजा मूल्य का 50 से 80 प्रतिशत अग्रिम दे दिया जाए ताकि वह अपने घरेलू व सामाजिक कार्य को कर सके। जब बाजार मूल्य उच्च स्तर पर हो तो बिक्री कर समिति का किराया और लिए गए अग्रिम को वापस कर अपनी बचत पूंजी को अपने उपयोग में ला सके। यह अत्यंत गंभीर और विचारणीय विषय है। इससे लघु और सीमांत कृषकों की तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति और फसल के उचित मूल्य प्राप्त करने में सुविधा होगी।

(i) प्रक्रिया इकाइयों की स्थापना— सरकार को यह भी ध्यान देना चाहिए कि किसान का जो उत्पाद है, वह किस प्रकार का है और उसकी उपयोगिता क्या है। जैसे हर वर्ष हमारे देश में विभिन्न भागों में विभिन्न फसलें खेतों में ही नष्ट हो जाती हैं। एक क्षेत्र में आलू गोदामों में छोड़ देते हैं या मिट्टी में दबा देते हैं, लहसुन की उपज लागत न मिलने के कारण खेतों में दबा रहने देते हैं, आम जैसे अनेक फल सस्ती दरों पर बिक्री करने अथवा बिना मूल्य लिए वितरित करने के लिए किसान मजबूर होता है। कहीं-कहीं प्याज, केला, अंगूर और अनेक सब्जियां नष्ट हो जाती हैं जबकि देश के दूसरे भागों में इनकी आवश्यकता होते हुए भी महंगे परिवहन के कारण उपलब्धता सुनिश्चित नहीं करायी जा पाती है। जहां जिस क्षेत्र में किसी चीज का उत्पादन अधिक है, उन क्षेत्रों में उत्पाद से संबंधित प्रक्रिया इकाइयां लगाई जानी चाहिए जिससे उत्पाद को खराब होने से बचाया जा सके तथा उसका उचित मूल्य भी किसान को मिल सके। इस व्यवस्था का पूरे देश में नितांत अभाव है।

(ii) भंडारण व्यवस्था— किसान का ऐसा उत्पाद जो विभिन्न समितियों के माध्यम से क्रय किया जाता है, उसे किसी न किसी गोदाम में रखने की व्यवस्था अथवा निर्यात की व्यवस्था की जानी चाहिए। उस क्रय किए गए उत्पाद की ग्रेडिंग व्यवस्था भी होनी चाहिए ताकि कुल उत्पाद की मात्रा पर उसके ग्रेड के अनुरूप बिक्री मूल्य मिल सके।

कृषि आधारित उद्योग-धंधे

ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित ऐसे उद्योग-धंधों की स्थापना की जानी चाहिए जिनमें न्यूनतम प्रशिक्षण से स्थानीय आबादी के व्यक्तियों को रोजगार मिल सके तथा किसानों के उत्पाद की उसमें खपत हो सके जैसे- फ्लोर मिल, राइस मिल, तेल कोल्हू, फलों से बनने वाले विभिन्न सामान, पापड़, बड़ियां, चिप्स एवं आचार आदि के उद्योग लगने चाहिए तथा उनको देश के दूसरे भागों में भेजने की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। ग्रामीण बेरोजगारों को ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए वहां के स्थानीय उत्पाद को ध्यान में रखते हुए लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना भी की जानी चाहिए।

ऋण योजनाएं

व्यावसायिक बैंकों द्वारा अपनी ऋण नीतियां इस प्रकार नहीं बनाई गई थी जिससे कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों को पर्याप्त ऋण सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। अतः इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु इन क्षेत्रों में ग्रामीण बैंकों की स्थापना आवश्यक थी। इनकी ऋण नीतियां एवं ऋण योजनाएं निम्न हैं—
1. लघु एवं सीमांत कृषकों एवं कृषि श्रमिकों को ऋण।
2. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के ग्रामीणों को ऋण।
3. ग्रामीण कारीगरों एवं लघु व्यवसायी को ऋण।

विविध ऋण योजनाएं
भारत सरकार के माध्यम से इन बैंकों द्वारा ग्रामीणों को अत्यधिक ऋण सुविधाएं प्रदान की जाती हैं, जो ग्रामीणों के लिए वरदान साबित हुई हैं। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं।
प्रत्यक्ष कृषि ऋण
इसके अंतर्गत लघु, सीमांत कृषक एवं कृषि श्रमिकों को ऋण प्रदान किए जाते हैं, जो निम्न हैं-
(अ) कृषि संबंधी ऋण— भारत सरकार द्वारा इन बैंकों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि संबंधी ऋण प्रदान किए जाते हैं जो ग्रामीण विकास की गति में तीव्रता प्रदान कर रहे हैं—
1. फसल ऋण
2. पान बाड़ी हेतु ऋण
3. डंगर बाड़ी हेतु ऋण
4. लघु सिंचाई योजना संबंधी ऋण
5. भूमि सुधार हेतु ऋण
6. बैल क्रय करने हेतु ऋण
7. गोबर गैस प्लांट लगाने हेतु ऋण
(ब) पशुपालन संबंधी ऋण— भारत सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों को पशुपालन संबंधी ऋण सुविधाएं प्रदान की गई हैं ताकि ग्रामीण वर्ग अपनी आय में वृद्धि कर सके और पशुपालन का लाभ उठा सके। इसके लिए ग्रामीण बैंकों द्वारा विभिन्न ऋण योजनाएं प्रदान की गई हैं।
1. दुग्ध विकास हेतु पशु क्रय करने की योजना
2. बकरी पालन हेतु वित्तीय योजना
3. सूअर पालन हेतु वित्तीय सहायता
4. कुक्कुट पालन हेतु ऋण योजना
अप्रत्यक्ष कृषि ऋण
भारत सरकार सामान्यतः अप्रत्यक्ष कृषि ऋण सरकारी समितियों के माध्यम से प्रदान करती है। वर्तमान में विभिन्न बैंक समितियों के माध्यम से समस्त वर्गों को ऋण प्रदान कर रहे हैं जो निम्न हैं—
1. ग्रामीण कारीगरों को ऋण
2. ग्रामीण क्षेत्रों के चर्मशोधकों व चर्मकारों हेतु वित्तीय सहायता
3. बांस की टोकरी बनाने के लिए ऋण योजना
4. दर्जियों को सिलाई मशीन हेतु वित्तीय सहायता
(स) ग्रामीण लघु व्यावसायियों को ऋण सहायता— सरकार द्वारा ग्रामीण अंचलों में रहने वाले व्यावसायियों अथवा नए सिरे से अपना व्यवसाय प्रारंभ करने वाले व्यक्तियों को बैंकों द्वारा निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत ऋण प्रदान किया जाता है—
1. नौका क्रय हेतु नाविकों को ऋण
2. होटल/पान दुकान हेतु ऋण
3. हाथ-ठेला या रिक्शा क्रय हेतु ऋण
4. सब्जी के व्यवसाय हेतु ऋण
5. कपड़े के व्यवसाय हेतु ऋण
6. उचित मूल्य के अनाज व किराना दुकान हेतु ऋण
7. आटा-चक्की व्यवसाय हेतु ऋण
8. फलों के बगीचे हेतु ऋण
9. शासकीय सस्ते अनाज की दुकान हेतु ऋण
(द) अन्य ऋण योजनाएं
1. उपभोग ऋण
2. जमा राशियों एवं आभूषणों पर ऋण
3. वाहन क्रय हेतु ऋण
4. ग्रामीण खाद व्यापार योजना
5. ग्राम गोद लेने की योजना
6. वेयर हाउस रसीद पर ऋण
7. किसान क्रेडिट कार्ड योजना
8. व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना।


✒  नवल किशोर
(लेखक उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक, लखनऊ में प्रबंध निदेशक हैं।)
ई-मेल : nawalkishore1001@gmail.com
साभार : कुरुक्षेत्र, दिसंबर 2011

21वीं सदी के सन् 2010 के बाद का भारत...




21वीं सदी को 'विकास की सदी' की संज्ञा देना ठीक ही है। 21वीं सदी में सारी दुनिया में हर क्षेत्र में विकास हो रहा है। इसमें सूचना प्रौद्योगिकी, इण्टरनेट और सोशल मीडिया की अहम भूमिका है। इण्टरनेट के कारण हर खबर क्षण भर में सारी दुनिया में फैल रही है। इण्टरनेट के कारण ही भाषा, समाज और संस्कृति में कई सार्थक परिवर्तन हुए हैं। हर क्षेत्र में परिवर्तन होने भी चाहिए क्योकिं क्रान्ति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं।

आज भारत में इण्टरनेट और सोशल मीडिया का प्रयोग जोरों पर हो रहा है। गाँव - गाँव में सोशल मीडिया का सार्थक उपयोग होते हुए देखा जा रहा है। जो खबरें और समाचार अखबारों और पत्रिकाओं में कुछ घण्टों बाद मिलती थीं। वो सोशल मीडिया पर तत्काल मिल रही हैं, और अधिक प्रामाणिकता के साथ। सोशल मीडिया ने हर आदमी को अभिव्यक्ति की सच्ची आजादी दी है। यह दौर है - बोल कि लब आजाद हैं तेरे....... अर्थात्  अपनी हर बात सब तक बेझिझक पहुँचाने का। हर लेखक को सच्चाई लिखकर समाज का सही मार्गदर्शन करके विश्वकल्याण में अपनी भूमिका निभाना चाहिए। आज युवा लेखक और नए लेखक बहुत बेहतर कर रहे हैं लेकिन स्थापित लेखक नहीं.......

सन् 2014 का आमचुनाव भारतीय जनता पार्टी ने सोशल मीडिया पर भरपूर प्रचार - प्रसार के बलबूते जीता और श्री नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने। तथाकथितों द्वारा ऐसा माना जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में भारत 'नवभारत - विकसित भारत' बनकर उभरा और देश में विकास की गंगा बही। लेकिन हकीकत कुछ यूँ है - इस दौर में किसान आत्महत्याओं और बलात्कार के मामले हद से ज्यादा सामने आए। महाराष्ट्र में सन् 2015 से 2018 के बीच तकरीबन 12 हजार किसानों ने आत्महत्याएँ कीं। सारी दुनिया की भूँख  मिटाने वाला, धरतीपुत्र किसान को दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं हुई। यत्र - तत्र किसान - आन्दोलन हुए लेकिन तानाशाही सरकार से किसान अपना हक पाने में नाकामयाब रहे। मजदूरों की हालात भी बहुत बुरी रही। सूखे की मार से ग्रसित बुन्देलखण्ड हमेशा उपेक्षित रहा। किसानों - मजदूरों के बच्चोँ की अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाई क्योंकि कुछेक को छोड़कर ज्यादातर सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की शिक्षा - व्यवस्था अस्त - व्यस्त रही। प्राईवेट
शिक्षण - संस्थानों और कॉन्वेंट स्कूलों का हाल और बुरा रहा। छात्र - छात्राओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद रोजगार और नौकरी के लिए दर - दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। भारत में शिक्षित बेरोजगार युवाओं की भरमार हो गयी है। युवाओं को सरकारें सिर्फ जुमले दे रही हैं।

सन् 2010 के बाद भारत के लिए आरक्षण घातक सिद्ध हो रहा है। आरक्षित लोग ही नौकरी - पेशा पाने में सफल हो रहे हैं। इसमें वो ही लोग हैं, जो कुछ हद तक सम्पन्न हैं लेकिन आज भी गरीब किसान - मजदूर और आदिवासियों के बच्चे आरक्षण नहीं पा रहे हैं  क्योंकि देश में जागरूकता का अभाव है। अब भारत के हालात बहुत ठीक हो चुके हैं और अब समय आ गया है - आरक्षण को खत्म करने का। मोदी सरकार ने सन् 2018 -19 में 10% सवर्णों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था करी। आरक्षण देना अब भारत के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि विश्वगुरू भारत के निवासी वैसे ही प्रतिभाशाली होते हैं और आज के युवा तो 21वीं सदी के हैं, जो बहुत ज्यादा प्रतिभाशाली हैं।

सन् 2010 के बाद जाति - पाति, भाषा, क्षेत्र, धर्म के आधार पर कुछ ज्यादा ही भेदभाव देखने को मिला। इस दौर में राजनीति धर्म और जातिवाद पर केन्द्रित हो गई। शिक्षा, पर्यावरण और रोजगार को चुनावी मुद्दा बनाने के बजाय धर्म और सीमा सुरक्षा चुनावी मुद्दे बनने लगे और जिन पर चुनाव जीते भी गए। सन् 2014 का आमचुनाव अयोध्या राममन्दिर निर्माण के मुद्दे पर जीता गया लेकिन अभी तक भी राम मन्दिर नहीं बना और न ही बनने की संभावना है।

 सन् 2019 का आमचुनाव पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर जीता गया लेकिन देश के अन्दर के विवादों को सुलझाने की कोशिश भी नहीं की जा रही है। अब धर्म और सीमा सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाना भारत के हित में नहीं है। भारत के हित में है - शिक्षा, पर्यावरण, महिला सुरक्षा, किसान - मजदूर कल्याण और रोजगार को चुनावी मुद्दा बनाकर चुनाव जीतना और भारत को विकसित भारत - समर्थ भारत बनाने में अपना अतुलनीय योगदान देना। अब लगने लगा है कि देश का पतन हो रहा है लेकिन सब के सब चुप बैठें हैं। अपने काम से मतलब है और किसी से कोई लेना - देना नहीं। देश को बचाने के लिए सरकार के खिलाफ सशक्त क्रान्ति करो, तभी हम भी बच पाएँगे। मोदी सरकार ने देश की ऐतिहासिक इमारत लाल किले समेत अनेकों सरकारी कम्पनियों को बेच दिया है और निजीकरण कर दिया है। जागरूक देशवासियो अपना एक ही लक्ष्य बनाओ - क्रान्ति मन, क्रान्ति तन और क्रान्ति ही मेरा जीवन............

सन् 2010 के दशक में देश में बलात्कार, नारी - अत्याचार और हत्याओं के मामले कुछ ज्यादा ही सामने आए। इस दौर में इंसानियत यानि मानवता का अंत होते हुए दिखा। दरिन्दों - हैवानों ने 3 माह की मासूम बच्ची से बलात्कार और हत्या से लेकर युवतियों को हैवानियत का शिकार बनाया। चाहे वह निर्भया काण्ड हो, आशिफा काण्ड हो या फिर सञ्जलि और ट्विंकल अलीगढ़ हत्या काण्ड हो। इन सब घटनाओं ने देश की छवि को धूमिल कर दिया। बलात्कारियों और हत्यारों की सिर्फ एक ही सजा होनी चाहिए - सजा ए मौत फाँसी। इन दरिन्दों - हैवानों पर बिल्कुल भी नरमी नहीं बरती जानी चाहिए, तभी देश विकसित भारत बन पाएगा।
सन् 2010 के दशक में देश में भाषायी भेदभाव कुछ ज्यादा ही देखने को मिला। हर ओर हिन्दी बनाम अंग्रेजी का बोलबाला रहा। 

आज हिन्दी भाषा आधुनिक भारतीय भाषाओँ का नेतृत्त्व कर रही है। देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी का प्रयोग कर रही है। हिन्दी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली तीसरी भाषा भी बन गयी है। फिर भी उसकी जन्मभूमि भारत में ही 'हिन्दी' और उसकी जननी 'संस्कृत' की घोर उपेक्षा की जा रही है। आजकल सिर्फ अंग्रेजी का दौर नजर आ रहा है।
आज दुनिया के विभिन्न देशों के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन - अध्यापन हो रहा है और हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद - 343 के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा और देश की सम्पर्क भाषा, कई राज्यों की राजभाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेजी से मात खाती हुई दिखाई दे रही है। जो हम सबके लिए सोचनीय है।

आजकल हमारे देश में उस अंग्रेजी को जो स्वार्थ और धनलिपसा की परिचायक है, को विकास की भाषा और आधुनिक बुद्धजीवियों, प्रतिभाशालियों की भाषा करार दिया जा रहा है। हर जगह हिन्दी सह अंग्रेजी की बदौलत हिन्दी बनाम अंग्रेजी नजर आ रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद - 348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में संसद व राज्य विधानमण्डल में विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा, उपबंध होने तक अंग्रेजी जारी रहेगी। जब देश की आमजनता को न्याय उसकी मातृभाषा में ही न सुनाया जाए तो इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है ? आखिर कब हमें न्याय अपनी भाषा में मिलेगा ?......

आजकल अंग्रेजी का बोलबाला संघ लोकसेवा आयोग (यू. पी. एस. सी.) की सिविल सेवा परीक्षा (सी. एस. ई.) में कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। सिविल सेवा परीक्षा में जहाँ हिन्दी माध्यम के सिर्फ 40 - 50 अभ्यर्थी ही सफल हो पाते हैं और वहीँ अंग्रेजी माध्यम के 850 - 950 अभ्यर्थी सफल होते हैं। आजतक कोई भी हिन्दी माध्यम से सिविल सेवा परीक्षा में टॉप नहीं कर सका। जो हमारी राजभाषा हिन्दी के लिए घोर अपमानजनक है। जबतक देश की सर्वोच्च परीक्षा में ही विदेशी भाषा अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा तबतक हिन्दी वालों का उद्धार न हो सकेगा और न ही देश का विकास। आखिर कब सिविल सेवा परीक्षा से अंग्रेजी माध्यम का अस्तित्त्व खत्म होगा ? आखिर कब सिविल सेवा परीक्षा में हिन्दी माध्यम वालों को उनका हक मिलेगा ? मेरा मत है कि सिविल सेवा परीक्षा सिर्फ और सिर्फ देशीभाषाओँ में ही होनी चाहिए तभी देश का विकास हो सकेगा।

शिक्षा - संस्थान ही भाषा का सच्चा प्रचार - प्रसार करते हैं और छात्र ही देश के भाग्यविधाता होते हैं। आजकल देश दुनिया में प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय और संबद्ध कॉलेजों में अधिकतर कार्यालयी काम - काज सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में हो रहे हैं। वहीँ कॉलेजों में हिन्दी भाषा और साहित्य को लेकर लाखों - करोड़ों रूपए राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों (सेमिनारों), व्याख्यानों,पत्र - पत्रिका और पुस्तक प्रकाशन तथा प्रतियोगिताओं में खर्च किए जा रहे हैं। अधिकतर हिन्दी के प्रोफेसर, छात्र और साहित्यकार ही हिन्दी में हस्ताक्षर नहीं करते। ये तथाकथित लोग सिर्फ और सिर्फ भाषणों में ही हिन्दी के प्रयोग और विकास की बात करते हैं और जमीनी स्तर पर नाममात्र के काम करते हैं। स्नातक हिन्दी ऑनर्स, संस्कृत ऑनर्स और दो - चार कोर्सों को छोड़कर सभी स्नातक और परास्नातक पाठ्यक्रमों का अध्ययन - अध्यापन अंग्रेजी माध्यम में ही हो रहा है। जब अपने ही देश के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अपनी मातृभाषा में अध्ययन - अध्यापन ही नहीं कर पा रहे हैं तो और कहाँ कर पाएँगे। आखिर कब देश के हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में सारे कोर्सों का अध्ययन - अध्यापन मातृभाषा, हिन्दी माध्यम में होगा ?...............................................

आज हमारे लिए सबसे बड़ी दुःख की बात यह है कि भारतीय संस्कृति पर नाज करने वाली, हिन्दूवादी एवं राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्त्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश के गाँव - गाँव ने अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोल रहे हैं और देश के भविष्य 'छात्रों' को अंग्रेजी के मानसिक गुलाम बना रहे हैं। हमारी मातृभाषा हिन्दी का अपमान कर रहे हैं। हमारी शिक्षा - व्यवस्था चुस्त - दुरुस्त न होने की बजह से इन गाँवों के सरकारी स्कूलों में हिन्दी माध्यम की पढ़ाई - लिखाई ठीक से नहीं हो रही है। यहाँ पर शिक्षा विद्यार्थियों का मिड - डे  मील की सामग्री तक हजम कर जा रहे हैं। ऊपर से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के मताई - बाप किसान - मजदूर हैं, जिन्हें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलता। यदि फुर्सत मिले तो ये अपने बच्चों की पढ़ाई का जायजा भी ले सकें। ये किसान - मजदूर कर ही क्या सकते हैं, जो करना है सरकार को करना है। सरकार द्वारा अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलकर जनमानस और ज्यादा बेरोजगारी और कुशिक्षा को बढ़ावा देने की साजिश नजर आ रही हैं। अंग्रेजी माध्यम की जगह सरकार को क्षेत्रीय भाषाओँ और बोलियों वाले माध्यमों में स्कूल खोलने चाहिए ताकि विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा प्राप्त कर सके और मातृभाषा का विकास कर सके। सरकार को अंग्रेजी माध्यम में संचालित होने वाली संस्थाओं पर प्रतिबंध भी लगाना चाहिए। माननीय मुख्यमंत्री को हिन्दी के साथ - साथ संस्कृत भाषा को अनिवार्य करना चाहिए और अंग्रेजी का पूर्णतः बहिष्कार करना चाहिए तभी हमारी भारतीय संस्कृति की विजयी पताका सारी दुनिया में लहर सकेगी और भारत देश विकसित देश बन सकेगा। हमें हमेशा अपनी मातृभाषा में काम करना चाहिए। 

इस संदर्भ में मेरा लेख 'अपनी मातृभाषा में काम करो' उल्लेखनीय है। जो इस प्रकार है -:
आज मेरी सबसे बड़ी कमी और परेशानी ये है कि मुझे अंग्रेजी नहीँ आती है। मैं न ठीक से अंग्रेजी समझ पाता हूँ और न ही बोल पाता हूँ। मुझे अंग्रेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान तो है। पर सबसे बड़ी बात ये है कि मैं विदेशी भाषा को उतना महत्त्व नहीं देता जितना अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा 'हिन्दी' को और आपसे भी कहता हूँ कि आप भी मेरा साथ दीजिए और विदेशी भाषा का कामचलाऊ ज्ञान रखिए और अपनी मातृभाषा में सारा काम कीजिए और अपनी तरक्की और अपने देश की तरक्की कीजिए ।

कोई भी देश किसी विदेशी भाषा में कामकाज करके तरक्की नहीं करता और न ही कर सकता है। प्रत्येक विकसित देश सदैव अपनी मातृभाषा में काम करके इस मुकाम तक पहुँचा है। इसी संबंध में 'भारतेंदु हरिश्चन्द जी' ने कहा हैं - " निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।। "

इस दौर में अपने हक और अधिकारों के लिए आवाज बुलन्द करना सबसे बड़ा गुनाह समझा जाने लगा। जो राष्ट्रवादियों से इतर हैं और देश की सच्चाई बयाँ करके अधिकारों की लड़ाई लड़ता है, उस पर देशद्रोह और राजद्रोह का आरोप तक लगाए गए। जो बिल्कुल भी ठीक नहीं है। भारतीय संविधान के समानता का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार आदि कानूनों का ठीक से पालन भी नहीं किया गया। यहाँ तक कि संविधान की अवहेलना भी की गयी....................

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दुनिया के कई देशों की यात्राएँ कीं और संबंध स्थापित किए लेकिन देश के ही आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों, पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों और नक्सली इलाकों में मोदी ने न के बराबर ही दौरे किए और इनके विकास पर मंथन भी कम ही किया। देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के और इन्हें शांत करने में काफी मेहनत करनी पड़ी। आखिर सांप्रदायिक दंगे होने की सम्भावना क्यों बनी ? जितनी देश की बाह्य (सीमा) सुरक्षा जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है देश की आंतरिक (गृह) सुरक्षा। देश में हमेशा ऐसा माहौल रहना चाहिए कि कभी भी गृह - युद्ध की संभावना ही न बने। तभी देश का निरन्तर विकास होता रहता है...............

✍ परिवर्तनकारी कुशराज
    झाँसी बुन्देलखण्ड
___13/6/2019__9:00अपरान्ह
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विकासवादी कविता : सब समान हों




चाहे हों दिव्यांग जन
चाहे हों अछूत
कोई न रहे वंचित
सबको मिले शिक्षा
कोई न माँगे भिक्षा

दुनिया की भूख मिटानेवाला
किसान कभी न करे आत्महत्या
किसी पर कर्ज का न बोझ हो
सबके चेहरे पर नई उमंग और ओज हो

न कोई ऊँचा
न कोई नीचा
सब जीव समान हों
हम सब भी समान हों

न कोई बनिया नाजायज ब्याज ले
न कोई कन्यादान के संग दहेज ले
कोई बहु - बेटी पर्दे में न रहे
सबको दुनिया की असलीयत दिखती रहे

कोई न स्त्री को हीन माने
वह साहस की ज्वाला है
अब तक वह चुप रही
तो हुआ ये
सिर्फ मानवता की हीनता
और हैवानियत का चरमोत्कर्ष
अब सब कुरीतियों - असमानताओं को मिटाना है
मानवता और विश्व शांति लाना है...

✒ कुशराज
झाँसी बुन्देलखण्ड
_14/1/19_11:56अपरान्ह

“कुरीतियों, असमानताओं को मिटाकर मानवता और विश्व शांति लाना है” https://www.youthkiawaaz.com/2019/06/we-need-a-equality-based-society-hindi-poem/#.XSpM0UXWFMI.whatsapp

कर्ज से परेशान किसान ने की आत्महत्या



बाँदा में कर्ज से परेशान एक बुजुर्ग किसान ने ट्रेन के सामने कूद कर आत्महत्या कर ली। परिजनों ने बताया कि उसके ऊपर लगभग 80 हजार का बैंक का कर्ज था। बुंदेलखंड में किसानों की हालात बद से बद्दतर होती जा रही है।
भुखमरी, तंगहाली व कर्ज से परेशान किसान मजबूरन आत्महत्या को गले लगा रहे है। मामला शनिवार को शहर कोतवाली के क्योटरा क्रासिंग के पास घटित हुआ। जहाँ धीरज साहू (55) नाम के किसान ने ट्रेन के आगे कूद कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। परिजनों ने बताया कि धीरज मूलतः मटौंध थाने के चंदपुरा गांव का है। तंग हाली के चलते पिछले कुछ दिनों से रोजगार की तलाश में बाँदा आया हुआ था।
धीरज के ऊपर बैंक का करीब 80 हजार का कर्ज था। खेती में कुछ खास हो नहीं रहा था। जिसकी वजह से वह तनाव में था। आज दोपहर वह घर से खाना खा कर निकला और आत्महत्या कर ली। घटना के बाद से परिवार में कोहराम मचा हुआ है।

साभार : बुन्देलखण्ड न्यूज 
www.bundelkhandnews.com
सपना सिंह  Jul 13, 2019

किसान आंदोलन पर बोले योगेंद्र यादव, किसानों ने पहली बार बनाया किसान घोषणापत्र




नई दिल्ली : अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के नेता योगेन्द्र यादव ने कहा है कि किसानों ने कृषि संकट के स्थायी समाधान के लिये पहली बार सरकार के समक्ष समस्या के समाधान का मसौदा पेश किया है। किसान चार्टर और किसान घोषणा पत्र के रूप में इस मसौदे को शुक्रवार को संसद मार्ग पर आयोजित किसान सभा में पेश किया जायेगा।

समिति द्वारा आयोजित किसान मुक्ति यात्रा के लिये देश भर से दिल्ली आये किसानों के संसद मार्च में हिस्सा ले रहे यादव ने कहा कि किसानों ने पहली बार कानून का मसौदा बना कर सरकार के समक्ष पेश किया है। किसानों को कर्ज से मुक्ति दिलाने और कृषि उपज की लागत का डेढ़ गुनी कीमत दिलाने से जुड़े प्रस्तावित दो विधेयक संसद में लंबित हैं। इन्हें पारित कराने के लिये किसानों ने सरकार से संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग को लेकर यह आंदोलन किया है।


यादव ने कहा कि पहली बार किसानों ने भी अपनी समस्या के समाधान का तरीका खुद तैयार कर सरकार के समक्ष प्रस्तावित कानून के मसौदे के रूप में पेश किया है। उन्होंने कहा कि यह भी पहला अवसर है जब किसानों ने अपने झंडों को एक कर लिया है। इसलिये यह आंदोलन निर्णायक साबित होगा। किसान यात्रा में शामिल विरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने इस आंदोलन को निर्णायक बताते हुये कहा ‘‘इस बार मज़दूर और किसान अकेला नहीं है। डाक्टर, वकील, छात्र और पेशेवर पहली बार अपनी ड्यूटी छोड़कर किसानों के साथ आये हैं।’ उन्होंने कहा कि इस बार आंदोलनकारी दोनों प्रस्तावित विधेयकों को पारित करने की मांग से पीछे नहीं हटेंगे।

साभार : प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क |  Nov 30 2018 3:38PM

परिवर्तनवाद / कुशराजवाद


       

कुशराज के (मेरे) विचारों को परिवर्तनवाद/कुशराजवाद की संज्ञा दी जाती है। परिवर्तनवाद दार्शनिक, राजनैतिक और सामाजिक सिद्धांत है। यही साहित्य के क्षेत्र में विकासवाद के नाम से जाना जाए। कुशराज का (मेरा) मूल मन्त्र है कि क्रान्ति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। कुशराज (मैं) हर क्षेत्र में आन्दोलन/क्रान्तियाँ करके, सार्थक परिवर्तन लाना चाहता है और विकास की गंगा बहाना चाहता है। कुशराज के (मेरे) विचारों से प्रभावित लोग और अनुयायी कुशराजवादी, कुशराजे, परिवर्तनकारी, परिवर्तनवादी और विकासवादी हैं। मेरे जैसे विचारकों के विचारों को भी परिवर्तनवाद की संज्ञा दी जाए क्योंकि यह दौर परिवर्तन और विकास का है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। लेकिन मैं कहता हूँ कि क्रांति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। क्रांति यानि आन्दोलन होने से परिवर्तन होते हैं। परिवर्तन होते हैं तो विकास जरूर होता है। किसी व्यवस्था, सिस्टम,अधिकार, सत्ता और संगठित तंत्र में कम समय में आधारभूत परिवर्तन होना ही 'क्रान्ति' कहलाती है। मानव इतिहास में अनेकों क्रांतियाँ होती आयी हैं और आज भी हो रही हैं। भविष्य में भी क्रान्तियाँ होती रहेंगी, जिनका होना दुनिया के लिए बहुत जरूरी है। हर क्रान्ति पद्धति, अवधि और प्रेरक वैचारिक सिद्धांत के मामले में बहुत अलग होती  है। अलग होना भी चाहिए क्योंकि विभिन्नताएँ बहुत जरूरी हैं, जो सबको पहचान दिलाती हैं। क्रान्तियों के परिणामों के बावजूद सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक संस्थानों में बहुत परिवर्तन होते हैं। क्रांति पर विद्वत्तापूर्ण विचारों की कई पीढ़ियों ने अनेकों प्रतिस्पर्धात्मक सिद्धांतों को जन्म दिया है और इस जटिल तथ्य के प्रति वर्तमान समझ को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
मेरा विचार है कि वैचारिक क्रान्ति ही परिवर्तन ला सकती है। ऐसी प्रक्रिया जो क्रांति होने के साथ किसी व्यवस्था, सरंचना या कार्यपद्धति में सुधार करके एक नए रूप को जन्म देती है और जो कभी न रुकती है 'परिवर्तन' कहलाती है। समकालीन विश्व में हर  क्षेत्र जैसे - समाज, शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, सिनेमा, कृषि, राजनीति और धर्म इत्यादि में अनेकों परिवर्तन होने से विकास हो रहा है। विकास होना भी चाहिए क्योंकि यही तो परिवर्तनवाद/कुशराजवाद का लक्ष्य है। इन परिवर्तनों की गति कभी तेज रही है तो कभी धीमी। कभी - कभी ये परिवर्तन अति महत्त्वपूर्ण रहे हैं तो कभी बिल्कुल महत्त्वहीन। कुछ परिवर्तन आकस्मिक होते हैं, हमारी कल्पना से परे और कुछ ऐसे होते हैं जिसकी भविष्यवाणी सम्भव है। कुछ से तालमेल बिठाना सरल है जबकि कुछ को सहज ही स्वीकारना कठिन है। कई बार हम परिवर्तनों के मूक साक्षी भी बने हैं। लेकिन अब परिवर्तनकारियों को मूक साक्षी बनने की जरूरत नहीं है। इन्हें सार्थक परिवर्तनों को अंजाम देना है।

व्यवस्था के प्रति लगाव के कारण मानव - मन इन परिवर्तनों के प्रति प्रारंभ में शंकालु रहता है परंतु बाद में उन्हें स्वीकार कर ही लेता है। अब समय है - परिवर्तनों को सहज स्वीकरने का। परिवर्तनकारियों के विचारों, नीतियों के साथ ऐसा ही है कि इनसे लोग भले ही देर से प्रभावित हों लेकिन प्रभावित होँगे जरूर। अब युग शुरू हो चुका है - परिवर्तन और विकास का। क्रांति और परिवर्तन के परिणामस्वरूप जिसकी उत्पत्ति होती है, उसे ही 'विकास' कहते हैं। विकास शाश्वत परिवर्तनों के रूप में स्वीकार किया जा रहा है। परिवर्तन एक ऐसी प्रकिया है जो कभी नहीँ रुकती है। मनुष्य की अभिवृद्धि एवं विकास माँ के गर्भ से प्रारंभ होकर जन्म के बाद जीवनभर निरन्तर चलता रहता है। विकास कई अवस्थाओं से होकर गुजरता है क्योंकि इसके लिए बड़े संघर्ष करने पड़ते हैं। किसी अवस्था में विकास तीव्र होता है तो किसी में मंद तो किसी में सामान्य। यहाँ व्यक्तिगत भिन्नता भी देखने को मिलती है। मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाह्य एवं आंतरिक अंगों में होने वाली वृद्धि होती है, जबकि मानव विकास से तात्पर्य उसकी अभिवृद्धि के साथ - साथ उसके शारीरिक एवं मानसिक व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों से होता है। विकास की प्रक्रिया एक अविरल, क्रमिक एवं  सतत् प्रक्रिया है।
वैचारिक क्रांति ही परिवर्तन ला सकती है क्योंकि इस दुनिया में अनंत शक्ति विचार में ही निहित है। विचार सर्वशक्तिमान हैं। विचार हमारी सोच पर निर्भर करते हैं। विचार और सोच का घनिष्ठ संबंध है। दार्शनिक और लेखक के विचारों से ही क्रांति होती है। लेखक समाज का सच्चा सृष्टा और दृष्टा होता है। कलम चलाना अंगारों पर चलने जैसा है। हम सबको अपनी प्रतिभा, हुनर और कौशल को पहचानना है।

 कलम की ताकत को मानना है क्योंकि हम सबके लिए कलम का बड़ा महत्त्व है। मैं कहता हूँ - "कलम ही मेरी ताकत है।" हम परिवर्तनकारी लेखकों का विचार है कि -
"कलम चलायी है तो हर मुद्दे पर चलेगी।
वो भी निष्पक्ष भाव से चलेगी।
चाहे कुछ भी हो,
कलम नहीँ रुकेगी।
मरते दम तक भी नहीँ रुकेगी।।"
आप सबको मेरा एक ही सन्देश है -
" लिख तूँ लिख,
  सबकी सच्चाई लिख।
  सच लिखने में डरना मत,
  असली बकने में झिझकना मत।
  बेईमान तोय दबाएँगे,
  तूँ हरहाल में दबना मत।
  मौत से कभी डरना मत,
  काय मौत के बाद,
  फिर से जनम मिलत है।
  ईसें यी जनम तूँ डर गया,
  तो खुदको भी माफ नहीँ कर सकेगा।
  लिख तूँ लिख,
  सबकी सच्चाई लिख............."
।। परिवर्तन लाओ - विश्वकल्याण पाओ।।


परिवर्तनकारी कुशराज ( मैं )  'दार्शनिक सिद्धांत - परिवर्तनवाद' को परिभाषित करते हुए कहते हैं -: "परिवर्तनवाद/कुशराजवाद एक ऐसी दार्शनिक अवधारणा है जिसके द्वारा क्रान्ति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं, को असलियत में लागू करना है। परिवर्तनवाद विश्वकल्याण की बात कर रहा है। इसके द्वारा गाँवों का विकास, हर जगह समानता, अभिव्यक्ति की पूरी आजादी, सख्त कानून व्यवस्था, शिक्षा पर जोर, किसान-मजदूरों की दशा में सुधार करके सत्ता की बागड़ोर सारी दुनिया की भूँख मिटाने वाले धरतीपुत्र किसानों और घोर परिश्रमी मजदूरों को सौंपना है। इससे घिसी-पिटी मान्यताओं को मिटाकर
भाषा,साहित्य,समाज, सिनेमा, संस्कृति और राजनीति में नवीनता  लाकर विकास करना है और आस्तिक बने रहना है। परिवर्तनवाद के अनुयायियों को परिवर्तनवादी, परिवर्तनकारी, कुशराजवादी, कुशराजे, विकासवादी की संज्ञा दी जाती है।
✍🏻परिवर्तनकारी कुशराज
__31/12/2018_10:00पूर्वान्ह__झाँसी बुन्देलखण्ड


परिवर्तनवाद / कुशराजवाद के लक्ष्य और विशेषताएँ :

1. आन्दोलन द्वारा अपने अधिकारों की प्राप्ति -:
क्रान्ति, परिवर्तन और विकास प्रकृति से शाश्वत नियम हैं। क्रान्ति के ही रूप आन्दोलन एयर विद्रोह भी हैं। परिवर्तनवाद बच्चे से लेकर बूढ़े तक को आन्दोलन करके अपने अधिकारोँ और माँगों को पाने की पूरी छूट देता है। आन्दोलन भले ही अपने सगे - सम्बन्धियों के खिलाफ ही क्यों न करने पड़ें लेकिन आन्दोलन जरूर करने चाहिए। तभी सभी की सारी मूलभूत जरूरतें पूरी होंगीं और किसी का भी शोषण नहीं होगा। जो अब समयचल रहा है उसमें कोई भी चीज आसानी से मिलने वाली नहीं है। इसमें हर चीज को पाने के लिए बड़ा संघर्ष करने की जरूरत हो गयी है। 'वीर भोग्यम् वसुंधरा' अर्थात् 'इस पृथ्वी का भोग वीर ही कर सकते हैं।' नामक उक्ति सार्थक हो रही है। आन्दोलन भले ही अकेले करना पड़े या संगठित होकर लेकिन किसी को भी किसी भी हाल में पीछे नहीं हटना है क्योंकि हम सभी वीर हैं। आन्दोलन के परिणामस्वरूप हुए परिवर्तनों द्वारा ही सबके जीवन में सुख - समृद्धि आएगी। आन्दोलन सच्चा न्याय पाने के लिए करना पड़े या शोषण - अत्याचार के विरुद्ध। हर परिस्थिति में हमें साहस से कलम की दम पर तनकर खड़े रहना है क्योंकि कुछेक आन्दोलनकारियों को ही हार का सामना करना पड़ता है ज्यादातर आन्दोलनकारियों की जीत ही होती है। परिवर्तनकारियों को आन्दोलन/क्रान्ति करना जीवन का परम कर्त्तव्य मानना चाहिए और उसका दृढ़ निश्चय के साथ पालन करना चाहिए।

2. गाँवों का विकास -:
परिवर्तनवाद गाँवों के विकास पर जोर देता है क्योंकि शहरोँ और महानगरों का खूब विकास हो चुका है। आज 21 वीं सदी में भी भारत और दुनिया के कई गाँवों और पिछड़े इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन सेवाएँ और बिजली तक नहीं पहुँची है। इण्टरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में इन गाँवो का विकास नहीं होगा तो आखिर कब होगा? गाँवों के विकास में ही देश का हित है क्योंकि भारत जैसे कई कृषिप्रधान देशों की अधिकतर आबादी गाँवों में ही निवास कर रही है। भारत की आत्मा तो गाँवों में ही बसती है। इन गाँवों में सबसे पहले गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की समुचित व्यवस्था होने की जरूरत है क्योंकि शिक्षा जीवन की आधारभूत जरूरत है। शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य दुनिया की हर चीज पा सकता है। जब गाँववासी शिक्षित होंगे तभी उनसे घिसी - पिटी रूढ़िवादी मान्यताओं को त्यागने के लिए आह्वान किया जा सकता है। आज भी गाँवों में पर्दा प्रथा, घूँघट प्रथा, दहेज प्रथा, छुआछूत, स्त्रियों के धर्मस्थलों जैसे- मंदिर, मस्जिद में प्रवेश पर रोक और यहाँ तक की बाल-विवाह प्रथा पूरी तरह विद्यमान हैं। अब समय आ गया है इन कुप्रथाओं को खत्म करके गाँवों को विकसित करने का और गाँववासियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का। गाँवों में इन घिसी-पिटी धार्मिक - सामाजिक मान्यताओं को खत्म करने के लिए भले ही परिवर्तनकारियों को आन्दोलन क्यों न करने पड़ें लेकिन अब गाँवों का चहुँमुखी विकास होकर रहेगा। गाँवों में ही पर्याप्त रोजगार की संभावना हो, ऐसी कोशिश जारी रहेगी।

3. किसान - दशा में सुधार -:
परिवर्तनवाद को किसानवाद की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। परिवर्तनवाद सारी दुनिया की भूँख मिटाने वाले, धरतीपुत्र किसानों के प्रति पूरा समर्पित है। मैं इन किसानों को 'दूसरा जीवनदाता' कहता हूँ। 21वीं सदी के आरम्भ से लेकर आजतक भारत के कई क्षेत्रों में किसानों को अपनी दुर्दशा से  आहत होकर आत्महत्याएँ करनी पड़ रही हैं। उन्हें ठीक से दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है क्योंकि ये बाजारवाद और महँगाई का दौर चल रहा है। अभी तक किसानों का सरकार, अमीरों और साहूकारों द्वारा शोषण होते आया है लेकिन अब से ऐसा कदापि नहीं होगा क्योंकि अब किसान जागरूक हो गए हैं और सबसे बड़ी बात तो ये है कि उनके प्रबल पक्षधर परिवर्तनकारी उनके साथ हर वक्त खड़े हैं। भारत के कई क्षेत्रों में सिंचाई के साधनों की उचित व्यवस्था नहीं है और तो और ऊपर से प्रकृति की मार किसानों को तबाह कर रही है। कभी भयंकर अकाल/सूखा पड़ जाता है तो कभी ऐसी बाढ़ आती है कि किसानों के खेत-खलिहानों के साथ ही साथ उनके घर - मड़ईयाँ भी साफ हो जाते हैं। महँगाई के इस दौर में और इन किसान - विरोधी सरकारों में किसानों की दशा और बुरी हो गयी है। किसानों की दशा में सुधार की सख्त जरूरत है क्योंकि किसानों के बिना दुनिया की कल्पना करना असंभव है।
बाजारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में किसानों की दशा में सुधार होने की पूरी संभावना है। किसानों की फसलों के दाम तीन -चार गुने होने चाहिए। जैसे - अभी गेहूँ के दाम लगभग 15₹ प्रति किग्रा० हैं तो आगे गेहूँ का समर्थन मूल्य ही 45 - 60₹ प्रति किग्रा० होना चाहिए। जब किसानों को फसलों के भरपूर दाम मिलेंगे तब न ही सरकार को किसान का कर्ज माफ करने की जरूरत है और न ही खैरात में किसानों को किसान - निधि के तहत 6000₹ सालाना बाँटने की। किसानों के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था अवश्य की जाए तभी विश्वकल्याण की कल्पना की जा सकती है। जब किसान शिक्षित होंगे तो इनका कोई भी शोषण नहीं कर सकेगा। लेकिन अभी जरूरत है किसानों को एक ऐसा आन्दोलन करने की। जिससे वो अपनी फसलों का उचित समर्थन मूल्य पाने में और एक बार अपना पूरा कर्ज माफ कराने में सफल हो सकें। साथ ही साथ वैज्ञानिक कृषि करने के गुण सीखने में भी कामयाब हो सकें।

4. मजदूर - दशा में सुधार -:
मजदूरों के बलबूते पर ही सारा उद्योग - जगत खड़ा है। कारखानों में मजदूरों की दशा बहुत बुरी है। न ही उन्हें भरपेट भोजन मिल रहा है और न ही उनको स्वास्थ्य/मेडिकल सेवाऐं मुहैया करायी जा रही हैं। देश के मजदूरों को गरीबी, लाचारी में जीवन गुजरना पड़ रहा है। कोयले और खनिज की खानों में कई मजदूरों की मौत हो जाती है। जिनके परिजनों को बहुत कम सहयोग दिया जाता है। बहुत से मजदूरों की मौत का पता तक नहीं लग पाता। बेलदारी/भवन -निर्माण में मजदूरों को आठ-दस घण्टे कोल्हू के बैल की तरह जोता जाता है। लेकिन आज इनकी मजदूरी सिर्फ 300-400₹ प्रति दिन है। जिससे सिर्फ इनके परिवार का ठीक से भरण-पोषण तक ही नहीं हो पाता है। शिक्षा का बाजारीकरण होने से इनके बच्चे अच्छी शिक्षा पाने में नाकामयाब हो रहे हैं क्योंकि शिक्षा बहुत महँगी हो गई है। अब जरूरत है - मजदूरों की मजदूरी तीन - चार गुना करने की। हर मजदूर की रोजाना की मजदूरी लगभग 900 - 1200₹ होना चाहिए तभी इस देश और दुनिया में बाल मजदूरी पर लगाम लगाया जा सकता है क्योंकि जब मजदूर को ही रोजाना की मजदूरी 900 - 1200₹ मिलेगी तब मजदूर के बच्चे को बाल-मजदूरी करने की जरूरत ही नहीं है। जो बच्चे अनाथ हैं और वो बाल - मजदूरी करने को मजबूर हैं तब इन अनाथों के लिए सरकार को ज्यादा से ज्यादा अनाथालय खोलने चाहिए और वहीँ पर उनकी शिक्षा - दीक्षा की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। इन मजदूरों और बाल - मजदूरों को अपनी दशा में सुधार लाने के लिए आन्दोलन करने चाहिए जिससे इनको अपने अधिकार मिल सकें और ये समाज की मुख्यधारा से जुड़कर विकास की राह पकड़ सकें।

5. किसान - मजदूरों का शासन -:
इस दुनिया में किसानों - मजदूरों की आबादी इतनी ज्यादा है, जितनी और किसी की भी नहीं है। सिर्फ जरूरत है इन किसान - मजदूरों को संगठित होकर लोकतंत्र में सत्ता की बागड़ोर हथियाने की। लोकतंत्र में चुनाव वही जीतता है और सत्ता उसी की होती है, जिसका जनाधार बड़ा होता है। इसलिए परिवर्तनवाद बिना किसी का विरोध किए किसानों - मजदूरों को एक मंच पर आने का निवेदन करता है और इनके शासन करने के मौके को किसी भी हाल में चूकने नहीं देना चाहता है। जब शासन किसान - मजदूरों के हाथ में होगा तभी देश - दुनिया का चहुँमुखी विकास हो सकेगा क्योंकि किसी के दुःख - दर्द को कोई और उतनी भली - भाँति नहीं समझ सकता जितना उसका सगा - सम्बन्धी।

6. पर्यावरण संरक्षण पर जोर -:
परिवर्तनवाद पर्यावरण संरक्षण पर बहुत जोर देता है क्योंकि पर्यावरण के घटक - जल, जंगल, जमीन और हवा के बगैर दुनिया के जीवधारियों का जीवन ठीक से नहीं चल सकता। क्योंकि हम मनुष्य हवा से ऑक्सीजन लेकर साँस लेते और हमारे द्वारा छोड़ी गयी कार्बनडाई ऑक्साइड से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में जंगल के सारे पेड़ - पौधे और किसान की फसलें अपना भोजन बनाती हैं। जिसने प्राप्त उत्पादों फलों, सब्जियों, अनाजों को हम अपने भोजन के रूप में उपयोग करके जीवित रहते हैं। आज पर्यावरण प्रदूषण बहुत बढ़ गया है। इस प्रदूषण से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय है कि ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए जाएँ और जंगलों को संरक्षित किया जाए। क्योंकि पेड़ ही बारिश कराने के लिए जिम्मेदार हैं और जल ही जीवन है। जल के बिना हमारे दैनिक क्रियाकलाप सम्पन्न हो सकते हैं और न ही फसलों की सिंचाई।आज औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के दौर में खेती की जमीन  का भी उद्योग - निर्माण और भवन - निर्माण में किया जा रहा है। इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है। खेती योग्य जमीन को बचाना बहुत जरूरी है बरना हमें भूखों मरना पड़ेगा। परिवर्तनवाद अभी से 'पर्यावरण बचाओ - जीवन बचाओ आन्दोलन' शुरू करता है।





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✒ कुशराज
  झाँसी बुन्देलखण्ड



किसान बचाओ - देश बचाओ


                   हमारा देश भारत प्रमुख कृषिप्रधान देश है, यहाँ पर लगभग 70% आबादी कृषि कार्य पर निर्भर है। इसलिए हम अपने देश को 'किसानों का देश' कहता हूँ। आजकल देश में किसानों की हालात बहुत बदत्तर हो गयी है। प्रकृति की मार, अतिवृष्टि ने किसानों की फसलों को चौपट कर दिया है। तेज वर्षा के साथ ओलों के गिरने से फसलें सर्वनाश हो गईं हैं। किसानों को खुदका पेट भरने के लिए अन्न उत्पादन करना मुश्किल पड़ रहा है।
              आज भारत के आंध्र प्रदेश और बुन्देलखण्ड क्षेत्र में किसान अपनी फसल को चौपट देखकर आत्महत्या कर रहा है। सरकार इस घटना की ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीँ दे रही है। सरकार को पीड़ित किसान को आर्थिक सहायता के रूप में फसल - सर्वेक्षण के आधार पर अधिक से अधिक मुआवजा देना चाहिए। सरकार को किसान के बिजली बिल और बैंक का ऋण माफ़ करना चाहिए।
             हमारी भारत सरकार को किसानों की इस स्थिति पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि किसान ही देश की शान हैं। किसान ही खाद्यान्न, फल, सब्जियों आदि खाद्य - पदार्थों का उत्पादन करता है और सरकार इन खाद्य - पदार्थों का निर्यात विदेशों को करती है और काफी विदेशी मुद्रा कमाती है एवं आर्थिक कोष में बढ़ोत्तरी करती है।
             किसान ही देश की जनता की भूँख मिटाते हैं इसलिए सरकार को किसानों के विकास की अनेक कल्याणकारी योजनाएँ बनानी चाहिए। जैसे - मुफ्त सिंचाई योजना, मुफ्त खाद योजना आदि। सरकार को देश में अनेक कृषि विद्यालय और विश्वविद्यालय खुलवाने चाहिए और किसानों को वैज्ञानिक तकनीक से कृषि कराने में मदद करनी चाहिए।
            जैसे सरकार भारी मुद्रा पार्क बनाने में, बड़े - बड़े राजनेता मूर्तियाँ बनवाने में, शादी, जन्मोत्सव, महोत्सवों में अरबों रुपये खर्च कर देते हैं। उन्हें ऐसा नहीँ करना चाहिए। सरकार और राजनेताओं को ये रुपये किसानों के विकास में खर्च करना चाहिए। सरकार को महँगाई कम करनी चाहिए।
           आज की तरह ही यदि किसान आत्महत्याऐं करते रहे तो हमें अन्न कौन देगा? और देश की अर्थव्यवस्था कैसे मजबूत होगी? भारत कैसे विकसित देश बनेगा? ऐसे हजारों प्रश्न उठते हैं। ऐसे प्रश्नों का जबाव सिर्फ और सिर्फ किसानों का विकास करना है और उन्हें किसी भी हालात में दुःखी नहीँ होने देना है। इसलिए तो कहा जा सकता है कि 'किसान बचाओ - देश बचाओ।' किसान रहेंगे तो कृषि होगी और कृषि होगी तो अन्न होगा। अन्न होगा तो हम होंगे।
           किसानों पर स्वरचित पंक्तियाँ आपसे साझा कर रहा हूँ -:
                     'किसान'
बारहों महीने जो खेतों में करता है काम।
सच्चा किसान है उसका नाम।।
         खेतों को जोतता, बीज बोता,
         बीज उगकर जब तैयार हो जाता।
         तो फसल को सिंचित करता,
         खाद देता, दवाइयाँ देता।
आदि करता है काम।
सच्चा किसान है उसका नाम।।


       ✒ कुशराज 
           झाँसी बुन्देलखण्ड
 _20/3/2015_10:25पूर्वान्ह

दुनिया के किसानों एक हो - कुशराज

दुनिया के किसानों एक हो - कुशराज नामक ब्लॉग पर आपका हार्दिक अभिनंदन है।











   ✒ कुशराज
झाँसी बुन्देलखण्ड
_14/7/19_1:35पूर्वान्ह

साल 2022 में कुशराज झाँसी

        साल 2022 में कुशराज झाँसी यी साल २०२२ के आखिरी दिनाँ हम अपने समाजी, संसकिरतियाई, लिखनाई, बकीली, सिक्छाई और नेतागिरी में करे गए कामन ...